🌲अपनी भक्ति की मजदूरी (कमाई) कभी व्यर्थ नहीं जाती🌲
द्रोपदी पूर्व जन्म में परमात्मा की परम भक्त थी। फिर वर्तमान जन्म में एक अंधे साधु को साड़ी फाड़कर लंगोट (कोपीन) के लिए कपड़ा दिया था। (अंधे साधु के वेश में स्वयं कबीर परमेश्वर ही लीला कर रहे थे।) जिस कारण से जिस समय दुःशासन ने द्रोपदी को सभा में नंगा करने की कोशिश की तो द्रोपदी ने देखा कि न तो मेरे पाँचों पति (पाँचों पाण्डव) जो भीम जैसे महाबली थे, सहायता कर रहे हैं। न भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा दानी कर्ण ही सहायता कर रहे हैं। सब के सब किसी न किसी बँधन के कारण विवश हैं। तब निर्बन्ध परमात्मा को अपनी रक्षार्थ हृदय से हाथी की तरह तड़फकर पुकार की। उसी समय परमेश्वर जी ने द्रोपदी का चीर अनन्त कर दिया। दुःशासन जैसे योद्धा जिसमें दस हजार हाथियों की शक्ति थी, थककर चूर हो गया। चीर का ढ़ेर लग गया, परंतु द्रोपदी निःवस्त्र नहीं हुई। परमात्मा ने द्रोपदी की लाज रखी। पाण्डवों के गुरू श्री कृष्ण जी थे।
जिस कारण से उनका नाम चीर बढ़ाने की लीला में जुड़ा है। इसलिए वाणी में कहा है कि निज नाम की महिमा सुनो जो किसी जन्म में प्राप्त हुआ था, जब परमेश्वर सतगुरू रूप में उस द्रोपदी वाली आत्मा को मिले थे। उनको वास्तविक मंत्र जाप करने को दिया था। उसकी भक्ति की शक्ति शेष थी। उस कारण द्रोपदी की इज्जत रही थी।
कबीर कमाई आपनी, कबहु ना निष्फल जाय। सात समुद्र आडे पड़ो, मिले अगाऊ आय।।
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Sat bhgti ki sahi vidi Jane ke liye hum se Jude